Saturday 2 January, 2010

काश! कि हम पत्थर दिल होते!!

काश! कि हम पत्थर दिल होते!!
खूब सताते लोगों को
नहीं किसी से चाहत होती
नहीं किसी होती नफरत।
सबसे झूठा प्यार जताते
चुपके से फिर तीर चलाते।
स्वार्थ जहाँ भी होती अपनी
मिलकर उअससे खूब निभाते
काम वो जब भी पडती उसको
Sorry कह हम यूं शर्माते..
खुशी न होती किसी से मिलकर
नहीं किसी का गम बिछड कर।


यह कविता बहुत ही लंबी थी जिसके महत्त्वपूर्ण अंश को ही रक्खा गया है।
२८-०४-०५ २१:१०

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