Wednesday 13 January, 2010

अपने कौन?


तन ने जब गद्दारी की,
अहसास हुआ, हैं अपने कौन!
पल पल जिनसे प्यार किया 
हर पल जिसका ध्यान किया 
कटु अनुभव पा उनसे
अहसास हुआ, हैं अपने कौन!
जीवन साथी वो जनम जनम के
प्यार किसी?  से करते वो!!
व्याज सदा ही रहता होठों पर
अहसास दिलाता जो अपने कौन!
कोई जिये मरे  कोई
काम से बस   मतलब रखना है
सब आखिर अपने है!!
शान्त स्निग्ध धवल वो सुन्दर 
कलुषित बस जो समझ नही!!
बस एक चुभन के आगे 
जान पडा है अपने कौन?
सुन प्रीत मेरे देख जगत को
हर एक ने रीत यही निभाई है।
वो अलग नहीं इस भीड भेड से
अब तो जान है अपना कौन?


Sunday 3 January, 2010

Saturday 2 January, 2010

भावुकता को मिटाना है॥

भावनाओं के तूफानों नें
जाने कितने चमन उजाडे
झंझाबातों को ये लाकर
कितनी बनती बात बिगाडे
मैनें अब यह जान लिया
अब खुद को है पहचान लिया
भावुकता के इस बन्धन में
कभी नहीं अब जीना है,
भावुकता को मिटाना है॥

अब तक जिनका साथ दिया
सदा ही जिसने प्रतिघात किया
नहीं समझ सका जिनको मैं
सदा ही जिसने ये दर्द दिया
फिर भी साथ निभाना है
भावुकता को मिटाना है॥

क्यूं उनके पीछे भागूं मैं?
क्यूं उन्को अपना समझू मैं?
खुद की दुनियाँ भी अब तो बसाना है
भावुकता को मिटाना है॥

भावना के अविरल प्रवाह में
जानें कितने डूब गये
बस एक किनारा को अब पाकर
कभी न अश्रु बहाना है
भावुकता को मिटाना है॥

छल दम्भद्वेष आदि की महफिल में
है भावना से सरोकार किसे?
भावुकता है सदा तेजरहित
तज तेज नही अब जीना है
भावुकता को मिटाना है॥

भावुकता के वशीभूत हो
विश्वामित्र है तपभंग किये
भावुकता के ही वशीभूत हो
हुमायुँ है सैन्य निवर्त किये
भावना के ही वशीभूत हो
जाने कितने संहार हुये
भावुकता के इस जकडन से
खुद को सदा बचाना है
भावुकता को मिटाना है॥

भावुकता सी सैन्य नहीं
है भावुकता नही दैन्य कोई
भावुकता के इस अन्तर्द्वन्द्व को
खुद को नहीं अब समझाना है
भावुकता को मिटाना है॥

भावुकता व निज संघर्षों मे
उत्थान पतन तो होंगे ही
भावुकता से मल्लयुद्ध में
इन बातों से नही घवराना है।
भावुकता को मिटाना है॥ भावुकता को मिटाना है॥

०६-०८-०५

बचपन था वो कितना सुहाना!!

बचपन था वो कितना सुहाना!!
संग तेरे बठे बात लडाना।
भाई-बहन को खूब चिढाना
काम न करना कर लाख बहाना
उम्र बढी खाकर पुरबाई
मेरे मन ने ली अँगराई
जिसने निशिदिन स्वप्न दिखाई
उफ! बचपन ने क्यूं ली जम्हाई
कालचक्र ने दी तरुणाई
सबने कर दी मेरी सगाई
पति देख मैं कुछ यूं शर्माई
वक्तने क्या यह खेल दिखाई।
सुन री सखि ! अब क्या है रोना
अब बस उनका साथ निभाना
चुपके से अब है तुमको बतलाना
बचपन था वो कितना सुहाना!!
बचपन था वो कितना सुहाना!!


०१-०५-०५

काश! कि हम पत्थर दिल होते!!

काश! कि हम पत्थर दिल होते!!
खूब सताते लोगों को
नहीं किसी से चाहत होती
नहीं किसी होती नफरत।
सबसे झूठा प्यार जताते
चुपके से फिर तीर चलाते।
स्वार्थ जहाँ भी होती अपनी
मिलकर उअससे खूब निभाते
काम वो जब भी पडती उसको
Sorry कह हम यूं शर्माते..
खुशी न होती किसी से मिलकर
नहीं किसी का गम बिछड कर।


यह कविता बहुत ही लंबी थी जिसके महत्त्वपूर्ण अंश को ही रक्खा गया है।
२८-०४-०५ २१:१०

कैसे मन का दीप जलाऊँ?

इन अन्धेरी रातों में
कैसे मन का दीप जलाऊँ?
अंजान शहर की इन राहों में
किसको अपना गीत सुनाऊँ?
जहाँ न कोई रिश्ता नाता
फिर क्यूं मन है वहीं पे जाता?
मेरी बेबस दिल की बातें
क्यूं ये मन उस तक पहुंचाता?
नहीं कभी थी चाहत जिससे
फिर क्यूं आज है चाहत उससे?
धूप-छाँव के जीवन में ये
क्यों प्यास जगाया मिलकर उससे?
जब कोई नहीं है इस जहाँ में
कैसे मिलकर प्यास बुझाऊँ?
इन अन्धेरी रातों में
कैसे मन का दीप जलाऊँ?
अंजान शहर की इन राहों में
किसको अपना गीत सुनाऊँ?


२८-०४-०५ २१:१०