Tuesday 20 May, 2008

क्यों ?


क्यों ?
हम हैं अकेले हैं आप अकेली,
क्यों याद सताये अपनों की?
है चान्द अकेला है चान्दनी अकेली,
क्यों फिर साथ निभाये दुनियां की?
है दिवस अकेला है निशा अकेली,
क्यों आश लगाये तारों की?
है गगन अकेला है धरा अकेली,
क्यों धैर्य बन्धाये नव सर्जन की?
है स्रष्टा अकेला है सृष्टि अकेली,
क्यों चिंतन हो फ़िर मानव की?
है हर प्राणी जव यहां अकेला,
क्यों याद करे मृगतृष्णा की?
हम हैं अकेले हैं आप अकेली,
क्यों याद सताये अपनों की?

कैसे...?
माना सभी हैं यहां अकेले,
पर सृष्टिचक्र को कैसे भुलायें?
कैसे कह दें मैं नवसृष्टि का प्राणी,
नवजीवन है इस वसुधा पर।
कैसे कह् दें "कोइ नहीं मेरा"?
जो है बस इक सपना है.
कैसे कह दें यह जीवनलीला ,
मृगत्रुष्णावत इक क्रीडा है?
यही सोच सखे!! याद सताये-
है अपनों की घरवालों की।
यही सोच...........
बिपिन झा
२३-०४-२००५

2 comments:

शोभा said...

सुन्दर प्रस्तुति है। लिखते रहें।

Amit K Sagar said...

सबकुछ बहुत उम्दा. लिखते रहिये. और भी अच्छा लिखे, कामना करते हैं. शुभकामनायें.

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